बदला ज़माना

कविता है गुलज़ार की, इसका शीर्षक वो नहीं है जो ऊपर लिखा है, वो तो मेरे ब्लोग का टाइटिल है




" कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रेहल की सूरत बना कर
नीम सजदे में पढा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इलम तो मिलता रहेगा इंशाअल्लाह
मगर वे जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
महकते हुए रूक़के
किताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा
वो शायद नहीं होंगे"

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