गलियाँ

गलियों से गले मिलती गलियाँ हैं
गलियाँ ही गलियाँ हैं
गलियाँ दर गलियाँ हैं
और गलियों में महकती हुई पूरी एक दुनिया है



तो गली हाफिज़ बन्ने वाली
गली हाकिम जी की
गली सुर्ख पोशां वाली
गली मीर दर्द वाली
गली मैगजीन वाली
तख्त वाली, जूते वाली

गली गुल-पहाड़ी इमली
गली गदहे वाली
गली बजरंगबली
गली आली वाली
गर्मी वाली
जाड़े वाली
गली है अखाडे वाली

तो गलियाँ ही गलियाँ हैं
गलियाँ दर गलियाँ हैं
और गलियों में महकती हुई पूरी एक दुनिया है

तो इस गली का हाथ थामे दूजी गली चली गई उस गली से गले मिलने
उस गली ने इस गली के सर पर हाथ फेरा
पहली ने पाँचवीं के कान पकडे
छठवीं ने सातवीं के पाँव छुए
ग्यारहवीं ने बारहवीं का फूला हुआ पेट ही टटोल लिया
ये गली अगली के घुटने के दर्द पर बँध गयी और ख़त्म हो गयी
और ये है कि सीना चीरे, माथा चूमे, हाथ भी मिलाती हुई
निकल गयी कई और गलियों से बहुत दूर
चितली कबर के बाज़ार में सौदा लेने
तो गलियों के सर माथे गर्दन हाथ पैर पेट पौंचे में
कूचे हैं
छत्ते हैं
खिड़की हैं
हवेली हैं
आलान बालान मारां सहेली हैं
तो कटरा मशरुआ नाकटरा बुलबुलखाना छत्ता चुहिया मेनका
तेरह बैरम खान का
हवेली है दर्कुली पत्थर-वाला
कमरा बंगेश
शाहगंज
खिड़की तफज्जुल की
फाटक गिट्टी सुलतान
शेख़ अफगान बारादरी
चूडीवालान भी है
बल्ली मारान भी है
सीरीवालान भी है
तो टोकरी वालान भी
गली गुड-गुढैया है
गली शाहतारा है

गरज ये है कि गलियाँ हैं
गलियाँ ही गलियाँ हैं
गलियाँ दर गलियाँ हैं
और गलियों में महकती हुई पूरी एक दुनिया है

दोस्तों! गलियों में बच्चे हैं
बच्चे ही बच्चे हैं
बच्चे दर बच्चे हैं
बच्चों में बँटे हुए बच्चे हैं
और तथाकथित बच्चों से कटे हुए बच्चे हैं

बच्चे क्यों कहें इनको
बच्चे ये जवान हैं
बच्चे ये बूढे हैं
जिंदगी कि इतर, सेंट, खुशबू नहीं हैं ये
जिंदगी के घूरे हैं
जिंदगी के कूड़े हैं

जिल्दसाज़
कार्खारंदाज़
फेरी वाले
चूडी वाले
फलवाले
ठेलेवाले
शरबत पतंग वाले
पालिशवाले
मालिशवाले
ज़र्दोज़ी कढाई वाले

भिश्ती हैं
दर्ज़ी हैं
पंसारी नाई हैं
खींच रहे गाड़ी हैं
या फ़िर कबाड़ी हैं
वरक कूटते हैं
मिठाई भी बनाते हैं
बावर्ची हैं
ये बच्चा इंक-ब्वाय
ये बच्चा पेपर-ब्वाय
ये बच्चा रिक्शा खींचता है
घर भर को सींचता है

और वो जो मोटे मोटे ग्रंथों पर
संतों की वाणी पर
किस्सा-कहानी पर
इतिहास भूगोल गीता पुराण पर
अंक गणित, बीज गणित, ज्ञान-विज्ञान पर
गोंद लेई गत्ते से जिल्दें चढाता है
दिन भर मेहनत के बाद क्या पाता है

सुबह से शाम तक कागज़ मोडे
यही उसके जीवन का आखिरी मोड़ है
यही उसके अतीत का घटाना है
यही उसके भविष्य का जोड़ है

और वो जो लिथो-प्रेस पर
इनके और उनके भाषण की ख़बर वाला
लाल नीले रंगों में
पोस्टर निकालता है
ख़ुद लाल नीली स्याही से पोस्टर बना खडा है
क्या आपने कभी इस पोस्टर को पढ़ा है?

वो जो काटता है
जो सिलता है
वो जो कूटता है
वो जो पीसता है
वो जो चढ़ता है
वो जो मढ़ता है
वो जो ढोता है
वो जो इस सब के बावजूद रोता नहीं है लेकिन काम करता है
पूरी नींद सोता नहीं है लेकिन...

वो कोमल फूल जैसा नही है... माफ़ करना
वो रंगीन सपना भी नही है... माफ़ करना
उसको अपने आप पर भरोसा है
उसका कोई अपना नही है... माफ़ करना

खिलौने और टाफियाँ नही हैं...मेहनत की रोटियाँ हैं सिर्फ़
खेल के मैदान नही हैं...कारखाने और कोठियाँ हैं सिर्फ़
वो जानता है कि क्या चीज़ ज्यादा ज़रूरी है
कि वो एक दिन की कमाई से बाप के लिए दवाई लाता है
और दो दिन की कमाई से वो बहन के लिए दुपट्टा लता है
(और यादा करें प्रेमचंद की वो कहानी)
की वो तीन पैसे में दादी के हाथों को जलता देख चिमटा खरीद के लाता है
खिलौनों के लिए नही ललचाता है

होली की फुहार है
इस कवि की यही पुकार है
की
नैतिक शिक्षकों! देश के रक्षकों!

देश की इस फसल को बचाओ
और समय से पहले हो गए इन बूढों को
बच्चा बनाओ!
बच्चा बनाओ!
बच्चा बनाओ

Comments

iitkgpblogs said…
Bam.. you've been linked..
http://iitkgpblogs.blogspot.com
Nimesh said…
nice poem dude! :)
GOURAV JAISWAL said…
kya baat hai... ashok chakradhar at its best...

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