गली क़ासिम जान ... सुबह का झटपटा, चारों तरफ़ अँधेरा, लेकिन उफ़्क़ पर थोङी सी लाली। यह क़िस्सा दिल्ली का, सन १८६७ ईसवी, दिल्ली की तारीख़ी इमारतें। पराने खण्डहरात। सर्दियों की धुंध - कोहरा - ख़ानदान - तैमूरिया की निशानी लाल क़िला - हुमायूँ का मकबरा - जामा मस्जिद। एक नीम तारीक कूँचा, गली क़ासिम जान - एक मेहराब का टूटा सा कोना - दरवाज़ों पर लटके टाट के बोसीदा परदे। डेवढी पर बँधी एक बकरी - धुंधलके से झाँकते एक मस्जिद के नकूश। पान वाले की बंद दुकान के पास दिवारों पर पान की पीक के छींटे। यही वह गली थी जहाँ ग़ालिब की रिहाइश थी। उन्हीं तसवीरों पर एक आवाज़ उभरती है - बल्ली मारां की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियाँ सामने टाल के नुक्कङ पे बटेरों के क़सीदे गुङगुङाते हुई पान की वो दाद-वो, वाह-वा दरवाज़ों पे लटके हुए बोसिदा से कुछ टाट के परदे एक बकरी के मिमयाने की आवाज़ ! और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अँधेरे ऐसे दीवारों से मुँह जोङ के चलते हैं यहाँ चूङी वालान के कङे की बङी बी जैसे अपनी बुझती हुई सी आँखों से दरवाज़े टटोले इसी बेनूर अँधेरी सी गली क़ासिम से एक तरतीब चिराग़ॊं की शुरू होती है असद उल्लाह ख़ान ग़ालिब का पता मिलता ह